दहेज और मोहिनी
घर की एकलौती बेटी मोहिनी, अपने माँ- बाप की सबसे चहिती मोहिनी की आज शादी होने वाली थी। शादी की सारी तैयारी हो चुकी थी। पूरे घर में रौनक छाई हुई थी । सभी लोग बाराती के आने का इंतजार कर रहे थे। इधर मोहिनी कमरे में तैयार बैठी बरातियों के आने का इंतजार कर रही थी। मोहिनी जितनी सुंदर थी उतनी ही गुणवान भी थी। मोहिनी इस शादी से खुश भी थी और अपने माँ बाप को छोड़ कर जाने का गम भी था। तभी गंगाधर जी कमरे में धीरे से आते है और अपनी बेटी को देख कर मुसकुराते है।
लेकिन दयाल जी के चेहरे पर थोड़ी उदासी छाई रहती है। दयाल जी बार बार गंगाधर जी के तरफ देखते है।विवाह संपत्र होने के बाद दयाल जी गंगाधर जी के पास जाते है और उन्हें अकेले में बुलाते है और कहते है- "आपने हमें दहेज में पूरे पाँच लाख रुपये देने का वादा किया था जिसमें आपने हमें सिर्फ ढाई लाख ही दिया है बाँकी के पैसे जल्दी हमारे घर पर भिजवा दीजिएगा।"
गंगाधर (थोड़ा सोचकर)- "उसकी चिंता आप मत कीजिये मैं पैसे दे दूंगा।"
इतना कह कर दयाल जी वहाँ से चले जाते है। गंगाधर अब सोच में पर जाते है कि वह कहाँ से पैसे लायेगें। वह किसी से कुछ नहीं कहते है। शादी के बाद विदाई की बारी आती है। मोहिनी रोते हुए अपने ससुराल चली जाती है।
इस तरह शादी के पूरे दो दिन बीत गए। लेकिन गंगाधर जी अभी तक पैसो का इंतजाम नहीं कर पाये थे और वह इसी चिंता में डूबे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। दूसरी तरफ मोहिनी अपने ससुराल में बहुत खुश थी। क्योंकि मोहिनी को बहुत बड़ा ससुराल मिला था। बिलकुल महल के तरह।बाहर बगीचा, बगीचे में बहुत सारे पेड़ पौधे लगे थे। घर में नौकरो की भी कमी नहीं थी। नरेंद्र कपड़ों का व्यापारी था। उसका व्यापार भी काफी अच्छा चलता था। उसकी माँ का नाम शीतल देवी था। नरेंद्र की एक बहन थी जिसका नाम रुक्मणी था। रुक्मणी मोहिनी को बहुत पसंद भी करती थी। नरेंद्र भी शादी से खुश था। दूसरी तरफ गंगाधर जी कमरे में बैठे बैठे सोच रहे थे कि कहाँ से इतना पैसा लाएगें। उनका सारा पैसा तो शादी में खर्च हो चुका था। कई बार उनके मन में आया कि वे अपना घर बेच दे, मगर वो फिर रहते कहाँ?
मोहिनी भी अपने पिता को देखती है और दौड़ कर गंगाधर से लिपट कर ज़ोर से रोने लगती है। गंगाधर के भी आंखो में आँसू आ जाते है। गंगाधर मोहिनी को चुप कराते है और कहते है- "बेटी तो पराई होती ही है। तू रो मत वहाँ जाकर खुश रहना।" इतना ही कह कर गंगाधर कमरे से बाहर चले जाते है और एक कुर्सी पर जाकर बैठ जाते है। गंगाधर एक सरकारी कर्मचारी थे जो अब रिटायर हो चुके थे। उनकी जागीर यही छोटा सा मकान था। बहुत मेहनत से पैसे जामा किए थे अपनी एकलौती बेटी की शादी के लिए। आज वो दिन आ चुका था। अब उसकी मोहिनी किसी और के घर जा रही थी। गंगाधर जी ये सब सोच ही की तभी उनकी पत्नी कौसल्या वहाँ आई और कहने लगी- "क्या सोच रहे है?"
गंगाधर- "कुछ नहीं। (अपने आँसू पोछ्ते हुए।) पंडित जी आ गए ना?"
कौसल्या- "हाँ आ गए है।"
गंगाधर- "वो बनारस वाली बुआ आयी की नहीं।
कौसल्या- "नहीं अभी तक तो नहीं आई है।"
गंगाधर- "तो उन्हें फोन कर लो। कब तक आएंगी। में किसी को लेने भेज दूँगा।"
कौसल्या ठीक है कहकर चली जाती है।
रामू जो की गंगाधर जी के पड़ोस में रहता था। वो अनाथ था। गंगाधर जी ने उसे रहने के लिए किराए पर एक घर दिलवाया था और काम भी दिलवाया था। गंगाधर जी उसे अपने बेटे की तरह मानते थे और शादी का सारा भर रामू ने ही लिया हुआ था। रामू काफी ईमानदार आदमी था। वह अकेला ही रहता था इसलिए वह गंगाधर के परिवार को ही अपना परिवार मानता था और मोहिनी को वह अपनी बहन मानता था।
इधर मोहिनी खुद को आईने में निहारती है। आज वह पहली बार इतनी सजी थी। खुद को आईने के सामने खड़े देखकर आज उसे कुछ अजीब लग रहा था। मानो उसके ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आने वाली हो। तभी अचानक जोर जोर से पटाखों की आवाजें आनी शुरू हो गयी। सभी के चेहरे पर खुशी छा गयी कि बराती वाले आ गये। मोहिनी की कुछ सहेलियां मोहिनी के कमरे में आती है और मोहिनी से खुशी के मारे कहती है- "बराती वाले आ गये है।"
मोहिनी समझ नही पाती की वह क्या करे। अजीब इतफाक होता है शादी में लड़कियों का। समझ नही कि वह खुश हो या दुखी हो। मोहिनी अपने खिड़की से बाहर की तरफ झाँकती है और फिर थोड़ा मुसकुराती है। फिर अपने बचपन में किए कुछ अनोखी घटनाओं को याद करती है और कुछ आँसू बहाकर अपनी उन पुरानी यादों को मिटाने की कोशिश करती है।
दूसरी तरफ बाराती वाले बारात लेकर गंगाधर के घर के बाहर पहुँचते है। दूल्हा घोड़ी पर सवार मानो कोई राजकुमार हो। दूल्हे के पिता जिनका नाम दीन दयाल था वह घोड़े के आगे आगे चले आ रहे थे। सब मस्ती में झूम रहे थे। बारात का बड़े धूमधाम से स्वागत हुआ। नरेंद्र जो की दूल्हा बना था वह मंडप पर तैयार बैठा था। इधर कौसल्या जी मोहिनी को लेने उसके कमरे में जाती है। माँ को आता देख मोहिनी कस कर अपनी माँ से लिपट कर रोने लगती है। माँ उसे दिलासा देती है की- "तू रोती क्यों है? तू कोन सा हमसे हमेशा के लिए दूर जा रही है। तू जब चाहे हमारे पास आ सकती है।"
ये कहकर वह मोहिनी को चुप कराती है और नीचे ले आती है। विवाह की सारी विधि आरंभ होती है। गंगाधर जी के चेहरे पर एक छोटी सी मुस्कान आती है।
गंगाधर (थोड़ा सोचकर)- "उसकी चिंता आप मत कीजिये मैं पैसे दे दूंगा।"
इतना कह कर दयाल जी वहाँ से चले जाते है। गंगाधर अब सोच में पर जाते है कि वह कहाँ से पैसे लायेगें। वह किसी से कुछ नहीं कहते है। शादी के बाद विदाई की बारी आती है। मोहिनी रोते हुए अपने ससुराल चली जाती है।
इस तरह शादी के पूरे दो दिन बीत गए। लेकिन गंगाधर जी अभी तक पैसो का इंतजाम नहीं कर पाये थे और वह इसी चिंता में डूबे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। दूसरी तरफ मोहिनी अपने ससुराल में बहुत खुश थी। क्योंकि मोहिनी को बहुत बड़ा ससुराल मिला था। बिलकुल महल के तरह।बाहर बगीचा, बगीचे में बहुत सारे पेड़ पौधे लगे थे। घर में नौकरो की भी कमी नहीं थी। नरेंद्र कपड़ों का व्यापारी था। उसका व्यापार भी काफी अच्छा चलता था। उसकी माँ का नाम शीतल देवी था। नरेंद्र की एक बहन थी जिसका नाम रुक्मणी था। रुक्मणी मोहिनी को बहुत पसंद भी करती थी। नरेंद्र भी शादी से खुश था। दूसरी तरफ गंगाधर जी कमरे में बैठे बैठे सोच रहे थे कि कहाँ से इतना पैसा लाएगें। उनका सारा पैसा तो शादी में खर्च हो चुका था। कई बार उनके मन में आया कि वे अपना घर बेच दे, मगर वो फिर रहते कहाँ?
ये सब सोच कर ही उनका दिल घबरा रहा था की इतने में मोहिनी के ससुराल से दयाल जी का फोन आता है। गंगाधर जी फोन उठाते है। तभी दयाल जी कहते है- "कहिए गंगाधर जी कैसे है? पैसो का इंतजाम हुआ या नहीं या फिर आपकी बेटी को आपके यहाँ भेजूँ।"
गंगाधर- "नहीं नहीं आप ऐसा मत कीजिएगा। मैं कुछ दिनों में ही आपके पैसे लेकर पहुँच रहा हूँ।"
दयाल जी- "कुछ दिनों से आपका क्या मतलब है? मैंने आपको दो दिनों की मोहलत तो दी ही। अब क्या?"
गंगाधर- "मैं लेकर आ जाऊंगा। आप चिंता मत कीजिये।"
दयाल जी- "ठीक है। मुझे भी आपसे यही आशा है, लेकिन जल्दी करिए, कहीं देर न हो जाए।"
इतना कहकर दयाल जी फोन काट देते है। गंगाधर जी अब और ज्यादा गहरे सोच में चले जाते है। थोड़ी देर बाद कौसल्या जी वहाँ आती है और कहती है- "क्या हुआ आप यहाँ इस तरह से क्यों बैठे है। बाहर क्यों नहीं जाते। तबीयत तो ठीक है न?"
गंगाधर- "मेरी तबीयत को क्या होगा, मैं बिल्कुल ठीक हूँ।"
कौसल्या जी- "आपको मोहिनी की याद सता रही है न? आखिर एकलौती जो थी। एक काम क्यों नहीं करते आप नरेंद्र को फोन करके दोनों को कुछ दिनों के लिए बुला लेते है और वैसे भी ये तो रसम है न।"
गंगाधर जी कौसल्या की बातें सुनकर क्रोधित हो जाते है और कहते है- "बस करो। तुम थोड़ी देर के लिए मुझे अकेला छोड़ दो।"
कौसल्या जी चुपचाप बाहर चली जाती है। उन्हें समझ नहीं आता की गंगाधर जी को हुआ क्या है। आखिर किस बात पर इतने नाराज है। गंगाधर जी भी क्या करते। उनके उपर तो मानो दुखो का पहाड़ गिर पड़ा हो। अब वह धीरे धीरे पूरी तरह से टुट रहे थे। शादी के पहले उन्हें लगा था कि पैसों का बंदोवस्त हो जाएगा लेकिन उन्हें अंदाजा भी नहीं था कि शादी में इतना खर्च होगा। उन्होने बड़े खानदान में अपनी बेटी की शादी करने के चक्कर में पहले ही बहुत खर्च किया था। ये सब सोचते सोचते शाम हो जाती है। कौसल्या जी फिर गंगाधर जी के कमरे में आती है। कौसल्या जी गंगाधर जी से खाना खाने के लिए बुलाती है। मगर गंगाधर जी खाने से मना कर देते है और कहते है- "अभी मुझे भूख नहीं है। जब भूख लगेगी तो खा लूँगा।" कौसल्या जी झुंजलाकर पूछ ही लेती है कि- "आखिर आपको हुआ क्या है? क्यों आप ऐसा कर रहे है? कुछ तो बताइये।"
गंगाधर जी थोड़ी देर चुप रहते है। फिर उनके आँखों से मोती की धारा बहनी शुरू हो जाती है और रोते हुए गंगाधर जी सारी बात बताते है। ये सब सुन कर कौसल्या जी की आँखों में भी आँसू आ जाता है। कौसल्या जी रोते हुए कहती है- "ऊपर वाला हमसे पता नहीं किस जन्म का बदला ले रहा है। आखिर क्या बिगाड़ा है हमने किसी का।"
गंगाधर- "पता नहीं विधाता को क्या मंजूर है। किसी से उधार भी लेना मुश्किल है। कौन देगा हमें उधार? अगर पैसों का बन्दोवस्त नहीं हुआ तो क्या होगा। नहीं मुझे ये घर गिरवी रखना पड़ेगा। इससे ढाई लाख रूपये का इंतजाम हो जाएगा। मैं सुबह पैसो का बंदोवस्त कर दूंगा। बाद में मैं धीरे धीरे ये मकान छुड़ा लूँगा।"
कौसल्या जी भी बात मान जाती है।
दूसरे दिन सुबह ही उठ कर ही अपने एक दोस्त के पास अपनी मकान गिरवी रखने चले जाते है। मगर वहाँ से भी उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है। क्योंकि गंगाधर के मित्र के पास पैसे न होने के वजह से उन्होने कुछ दिनों का समय मांगा। मगर गंगाधर जी के पास कहा समय था। गंगाधर जी घर आते ही अपने कमरे में जाकर रोने लगते है। कौसल्या जी उन्हें दिलासा देती है और कहती है- "आप चिंता मत कीजिये मैं समधी जी से बात करूंगी। सब ठीक हो जाएगा।"
तभी गंगाधर जी के दरवाजे पर दस्तक होती है। कौसल्या जी दरवाजा खोलने बाहर की तरफ जाती है। दरवाजा खुलते ही बाहर मोहिनी अपना समान लिए खड़ी रहती है।
कौसल्या जी (सहमी आवाज़ में)- "मोहिनी तू! दामाद जी नहीं आए?"
मोहिनी (मुसकुराते हुए)- "नहीं उनको थोड़ा काम था।"
गंगाधर जी कमरे में बैठे ही ये सब सुन लेते है और बिल्कुल शांत हो जाते है।
मोहिनी- "माँ मैं कुछ दिनों के लिए आई हूँ फिर चली जाऊँगी। माँ तुम इतनी उदास क्यों हो?"
कौसल्या जी (आँसू पोछ्ते हुए)- "अरे मैं कहाँ उदास हूँ। ये तो खुशी के आँसू है।"
मोहिनी- "वैसे पिता जी कहाँ है? मुझे उनसे बहुत सारी बातें करनी है।"
कौसल्या जी- "अपने कमरे में है।"
मोहिनी समान रख कर गंगाधर जी के कमरे में जाती है। कौसल्या जी भी पीछे पीछे जाती है। गंगाधर जी अपने कुर्सी पर बैठे एक टक दीवार की तरफ देखते रहते है। मोहिनी आते ही गंगाधर जी के गले से लिपट जाती है और कहती है- "पापा मुझे आपकी बहुत याद आती थी।"
मगर गंगाधर जी कुछ नहीं कहते। ये देख कर कौसल्या जी घबरा जाती है। फिर मोहिनी अपने पिता की तरफ देख कर हिलाती है तभी गंगाधर जी की आँखें बंद हो जाती है और कौसल्या जी के मुहँ से एक चीख निकल जाती है। मोहिनी भी देख कर पहले डर जाती है फिर पापा पापा कहते हुए गंगाधर जी से लिपट कर ज़ोर से रोने लगती है। गंगाधर जी अब इस दुनिया को छोड़ कर जा चुके थे। कौसल्या जी भी अपनी चूड़ी पटक कर रोने लगती है। हल्ला सुनकर मोहल्ले वाले मकान के बाहर जमा हो जाते है। कुछ औरतें घर के अंदर आती है। रामू भी ये सब देख कर भागा हुआ घर के अंदर आता है।
गंगाधर जी को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाता है। मोहिनी के ससुराल वाले भी आते है। मोहिनी इन सारी बातों से बिल्कुल अंजान रहती है। सारी विधि खत्म होने के बाद कौसल्या जी मोहिनी को सारी बात बताती है। यह सब सुनकर मोहिनी ससुराल जाने से साफ इंकार कर देती है और ससुराल से सारे रिश्ते खत्म कर देती है और खुद अपने पैरों पर खड़ा होने का फैसला करती है।
नरेंद्र इन सब बातों से अंजान था। उसे जब ये पता चलता है तो वो भी काफी दुखी होता है। मगर अब तक बहुत देर हो चुकी होती है। दयाल जी को इस हादसे के बाद से कोमां में चले जाते है। नरेंद्र मोहिनी के सुंदर रूप को कभी भुला नही पाता।
Writer: Aditya Kumar
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nice
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